Aacharya Arhatbali
आचार्य अर्हद्बली (गुप्तिगुप्त )
जीवन-परिचय: आचार्य गुणधर के बाद आचार्य अर्हद्बली का नाम आता है। इनका दूसरा नाम गुप्तिगुप्त भी था। इन्हें आगम के आठ अंगों (अष्टांग महानिमित) का विशिष्ट ज्ञान था और ये संघ-पालन में कुशल एवं समर्थ आचार्य थे। आप बड़े तपस्वी, श्रेष्ठ विद्वान और कुशल संघनायक के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। इनके समय तक मूल दिगम्बर परम्परा में प्रायः संघ-भेद प्रकट नहीं हुआ था।
आचार्य अर्हद्बली ने एक बड़े यति सम्मेलन में अनेकों मुनि संघों का 'नन्दि', 'वीर', 'अपराजित देव' पंचस्तूप', 'सेन', 'भद्र' 'गुणधर', 'गुप्त' 'सिंह' और 'चन्द्र' आदि नामों से विभाजन कर भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किए थे। जिससे मुनि संघों में एकता तथा अपनत्व की भावना, धर्मवात्सल्य और प्रभावना बनी रहे। इसलिए आप 'मुनि संघ- प्रवर्तक', कहे जाते हैं। आपके समय से ही संघों के विविध नाम प्रचलित हुए हैं। आचार्य धरसेन ने अपनी आयु अल्प जानकर श्रुत-संरक्षण (जिनवाणी/ ग्रन्थों की रक्षा) के भाव से एक पत्र आन्ध्र देश में स्थित आचार्य अर्हद्बली के पास भेजा था। आचार्य अर्हद्बली ने पत्र पढ़कर दो योग्य शिष्यों (पुष्पदन्त और भूतबली) को धरसेनाचार्य के पास भेजा था। आचार्य अर्हद्बली से उन दोनों मुनिराजों को आगम एवं सिद्धान्त सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त हुआ था। अतः हम कह सकते है कि आचार्य अर्हद्बली को आगम एवं सिद्धान्त सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त था। वे दोनों योग्य एवं विद्वान् मुनिराजों के दीक्षागुरु भी रहे होंगे।
प्राकृत पट्टावली के अनुसार इनका समय विक्रम संवत् 95 और वीरनिर्वाण संवत् 565 है। ये पूर्व देश में स्थित पुण्ड्रवर्धनपुर के निवासी थे। इनका साधुकाल 28 वर्ष बतलाया है।
आचार्य अर्हद्बली के द्वारा रचित कोई ग्रन्थ रचना तो प्राप्त नहीं होती है, परन्तु श्रुत ज्ञान संरक्षण में इनका अतुलनीय योगदान प्राप्त होता है।